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boond boond lafz bandh rahe hai

boond boond lafz bandh rahe hai

5/8/08

कुछ फ़ासले

कभी तुम कहा करती थी
आज हमें भी यू लगता है
फ़ासले अच्छे होते है


तब हमें ठेस लगती थी
आज तुम्हे दर्द होता है
यू फ़ासले जो बढ़ते है


तब सुईयाँ तेज़ भागती थी
अब घड़ी ही बंद रहती है
वक़्त के भी फ़ासले होते है


डोर कभी जो बँध रही थी
गाँठ वही अब खुल रही है
साँसों मे भी फ़ासले होते है


कल मेरी जो परच्छाई थी
आज वही लगती पराई है
रूह ने जिस्म से फ़ासले किए है



5 comments:

कुश said...

बहुत बढ़िया रचना.. सई.. आपका ये अंदाज़ भी बड़ा रोचक रहा

Piyush k Mishra said...

डोर कभी जो बँध रही थी
गाँठ वही अब खुल रही है
साँसों मे भी फ़ासले होते है

yeh badhiya laga..
infact poori kavita hi achhi lagi..

डॉ .अनुराग said...

कल मेरी जो परच्छाई थी
आज वही लगती पराई है
रूह ने जिस्म से फ़ासले किए है


वाह सई जब भी दिल से लिखती हो.....भली सी लगती हो......

राज भाटिय़ा said...

कल मेरी जो परच्छाई थी
आज वही लगती पराई है
रूह ने जिस्म से फ़ासले किए है
अरे कहा कहा से शव्द ढुड कर लाते हो तुम कवि लोग, जो सीधे दिल मे उतर जाते हे,बस यही कहु गा अच्छी लगी आप की यह कविता

pallavi trivedi said...

कल मेरी जो परच्छाई थी
आज वही लगती पराई है
रूह ने जिस्म से फ़ासले किए है

kya baat hai..bahut khoobsurat